हो गयी तू किसी ग़ैर की, फिर भी न जाने अपनी सी लगी

हो गयी तू किसी ग़ैैैैैैैर की फिर भी न जाने अपनी सी लगी। थी नाराज़गियाँ तेरी बेवज़ह की जो तुझे मेरी रूह से दूर ले जाने लगी।। दिल में तूने खिलायी मुहब्बत की कलियाॅ अब तलक मुरझा गयी अरमानो की डालियाॅ ज़िन्दगी का साज बनी जो तेरे घर की गलियाँ पर तूने ही क्यों तोड़ी मेरे ज़स्बातो की बलिया रह गयी ज़ेहन में परछाई तेरे अक्स की वो अपनी फूटी हुई तक़दीर बनने लगी बदनसीबी मेरे अधूरे मुक़म्मल इश्क की जो किसी ग़ैर से तेरी शहनाई बजने लगी मेरी मुफ़लिसी पर तूने उठाये जो सवालियाॅ उछाली सिर्फ थहाकों की हज़ारो कव्वालिया यक़ीनो की दीवारों पर मारी चुभती कटारियाँ इश्क के नाम पर जो खेली बदली सी रंगोंलियाँ सवाँर दी ज़िन्दगी किसी ग़ैर की मुझे अब हर महफ़िल वीरान लगी ज़रूरत थी शायद तुझे अमीरज़्यादो की जो मेरी मुहब्बत पर भारी पड़ने लगी अमीरो के साथ तेरी तक़दीर सवरने की कानों मे गूँजती कहानियाँ बुरी तो न लगी गलतियाँ भर थी तेरे रूह तक डूबने ...