इन्सान दोड़ती हाँड़ की मशीन,Aaj insaan dhortee haar ki machine

वक्त अब सुुुुकून पर भारी पड़नेे लगे इंसान दोड़ती हाड़ की मशीन बनने लगे। बच्चे अपनी उम्र से ज़्यादा सयाने हुये इनके सवालों के जवाब बहुत मुश्किल हुये ।। घरों की चारदीवारों तक लोग सिमटते दिखे बाल- बच्चे,बीबी तक के दायरो में चिपके रहे। एक घर,चार-चार टीवी, मोटर, मोबाइल अब घरों में इन्सान कम,ओजार अधिक हुये।। दोस्तों कभी जमाने में ऐसे भी दिन हुये जब पूरे परिवार की भीड़ टिकती थी टीवी तले। तब एक ही फ़ोन ने हज़ारो सिलसिले सुने।। विकास की होड़ में सोच के दायरे बदलने लगे मतलब की डोर से अब रिश्तों के सोदे होने लगे। शोहरत की कश्मक़श में अहसास रोंदते चले अब खुद से खुद तक ही जीने के मायने बने।। सिमटता हुआ इन्सान अब कुयें के मेढक बने ज़िन्दगी को लगाया मशीन ओजारो के गले मासूम अहसासो को रोदाँ अपने ही पैरों तले {CONTENT IS ORIGINAL WORK OF WRITER}...