मतलब भर के रिश्ते,Maatlabh bher ke rishte

    खुद केे ग़मो की सुुध न करने से
    दूसरे के सुकून ज़माने को चुभने लगे।
    लोग अब लब्ज़ो की मीठी छुरियो से
    अपनो को ही दग़ा न जाने क्यों देने लगे।
    मतलब भर से ही सब रिश्ते बनने लगे
    मासूम बस शतरंज के मुहरे बन पिटने लगे।
  
 ये लेखक की अपनी  मौलिक रचना है। 
इसे किसी भी रूप में इसका किसी भी प्रकार audio,video,print etc माध्यम से या इसके 
किसी भी भाग को तोड़ मरोड़कर प्रकाशित 
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टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छा लिखा है आगे मेहनत करते रहो

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  2. बहुत अच्छा लिखा है आगे मेहनत करते रहो।

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