कभी कुदरत से आशिक़ी तो कर
इसकी महफ़िलो से दोस्ती तो कर।
बोझिल मन को इसमें ओझल तो कर
कभी हदय की ऑखे खोल महसूस तो कर।।
आता कोई जब इसकी पनाहों में थककर
होती है चंद लम्हो में सारी थकान ग़ायब।
ज़िन्दगी के सब गहरे ज़ख्मो की ये दवा
कभी कुदरत की फ़िज़ाओ की आरज़ू तो कर।।
जीवन का वो हर फ़लसफ़ा छिपा जो इसमें
सारी किताबों में नहीं मिलेगा वो पढकर।।
भटकते-टूटते रूहों को बनती ये रहनुमा
कभी कुदरत की गोद में कश्मकश तो दफ़न कर।।
मशीनी दुनिया में रह गया तू अब उलझकर
मोबाइल,टीवी की लतों में ठहरा सिमटकर।
आपाधापी की दोड़ में गिर जायेगा लुढ़ककर
कभी इन सब कूचों से बाहर तो आजा निकलकर।।
{Kuldeep singh negi Poetry}
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Khubsurt line line
जवाब देंहटाएंअति सुंदर
जवाब देंहटाएंVery close to nature and deep way of expression
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