कभी कुदरत से आशिक़ी तो कर

कभी कुदरत से आशिक़ी तो कर
इसकी महफ़िलो से दोस्ती तो कर।
बोझिल मन को इसमें ओझल तो कर
कभी हदय की ऑखे खोल महसूस तो कर।।

आता कोई जब इसकी पनाहों में थककर
होती है चंद लम्हो में सारी थकान ग़ायब।
ज़िन्दगी के  सब गहरे ज़ख्मो की ये दवा
कभी कुदरत की फ़िज़ाओ की आरज़ू तो कर।।

जीवन का वो हर फ़लसफ़ा छिपा जो इसमें
सारी किताबों में नहीं मिलेगा वो पढकर।।
भटकते-टूटते रूहों को बनती ये रहनुमा
कभी कुदरत की गोद में कश्मकश तो दफ़न कर।।

मशीनी दुनिया में रह गया तू  अब उलझकर
मोबाइल,टीवी की लतों में ठहरा सिमटकर।
आपाधापी की दोड़ में गिर जायेगा लुढ़ककर
 कभी इन सब कूचों से बाहर तो आजा निकलकर।।
 {Kuldeep singh negi  Poetry}

 वैधानिकचेतावनी। इस कविता का किसी भी रूप में  ऑडियो,वीडियो , किसी भी रूप में व्यावसायिक उपयोग हेतु लेखक की अनुमति अनिवार्य है। ये लेखक की मौलिक रचना है। इसे किसी भी रूप में इसका किसी भी प्रकार audio,video,print etc माध्यम से या इसके किसी भी भाग को तोड़ मरोड़कर प्रकाशित करने पर कानूनी कार्रवाई की जायेगी। 
All right reserved.No part of this content may not copied,reproduce,adapted . In any way print electronic audio video etc medium 
Under  copyright act 1957. 


              
           



टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तमन्ना कुछ कर गुज़रने की,Tammna kuch kar Guzarne ki

बातो ही बातों-बातों में,Bato Hi Bato-Bato mein, By kuldeep singh negi shyari

फूलों का मौसम याद मे तेरी