तेरी लज्ज़ा खुद तेरा श्रंगार बनाती है, teri Lajja khud tera Shringar banati hai


तेरी लज्ज़ा खुद तेरा श्रंगार बनाती है
 सोलह श्रंगारो को वीरान बनाती है।
 हया की ओड़नी जो डाली है तन पर
 हजारों दीवानों को तेरा क़ायल बनाती है।।

 सूरज की पहली किरण दमकती तेरे माँथे पर
 चमकती सी कुमकुम को बदरंग बनाती हैं।
 तेरी झुकती पलके ढलती साॅझ  बनाती है
 हजारों ऑखो के काजल को ख़ाक बनाती है।।
  
 हवा के झोकें उड़ाती है जब तेरी चुनरियाॅ को
 तेरी बढती हया तेरे गाॅलो को लाल बनाती है।
 शरमाती ऑखों को छुपाती तेरी जुल्फ़ो के घेरे
 फ़ूलो के लटकते गजरो को बेकार बनाती है।।

 बारिश की बूँदें निखरती है जब तेरे तन  पर
 तेरी महकशी लाखों शबाव को राख बनाती है।
 शर्म को बिखेरती तेरी खिलखिलाहट की झंकार
 ज़माने की सारी महफिल को सुनसान बनाती है।।

       {Kuldeep singh negi  Poetry}

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