कुछ चंद भर किताबें पढ़कर kuch chnd bhar kitabe padhkar
ये कुछ भी न है तुम्हारा जानना
बस लिखी बातों को दोहराते हो तुम
ज़ेहन में ज़रा कभी खुद से तो पूछो
खुद के बारे में कितना जानते हो तुम
अक्स की परछाई को कितना जानते तुम
रूह की गहराई को कितना जानते तुम
अपनी साॅसों की वफाओ को कितना जानते तुम
दिलो में लूह भरने की शिराओं को कितना जानते तुम
क्यो चमकते फ़लक पर चाॅद संग तारों के काफ़िले
क्यों बदलते मौसमो के रंगों के सिलसिले
क्यों उफ़नते मन में तूफानों से ज़लज़ले
सदियों से होते दिन रात को कितना जानते हो तुम
दुनिया की मोटी मोटी किताबों के पोथो को रटकर
बस तोतो की जुबान अपने लब्ज़ो पर लाते हो तुम
ज़िन्दगी में अगर खुद से कुछ भी न जाने हो तुम
तो रटी रटाई बातों को ज्ञान समझ इतराते हो तुम
जिस जिस्म को अपना समझते हो तुम
उसे बनाने वाले खुदा को कितना जानते हो तुम
जिस पेड़ की छाँव में गुज़रा तेरा पूरा बचपन
उसकी जड़ों की गहराईयों को कितना जानते तुम
अगर इन सभी को दूसरे के लब्जो से ही जाने तुम
तो दुनिया भर की पोथियों को पढकर कुछ भी न जाने तुम
ज़िन्दगी की ज़ुस्तज़ू में खुद से जितना भी जाने तुम
तो समझना अनपढ़ होकर भी बहुत कुछ जानते हो तुम
(By-Kuldeep singh negi)
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Nice
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर।
जवाब देंहटाएंSir very outstanding. Very real things written by you.
जवाब देंहटाएंAasi sundr line sir
जवाब देंहटाएंPhilophicCal but truth
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुतिकरण। keep it up👌👌
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