मुहब्बत से रहो हर मज़हब के लोग
नफ़रत कब तक फैलाओगे।
आँग बनकर सुलगा जो अगर
इन्सानियत के रिश्ते ख़ाक हो जायेगे।।
जो वोट की ओट में सेकते रोटियाॅ
बन गया इंसान इनकी फसती मछलियाँ।
ये लोग ज़ेहन में बस भरते जहरीली गोलियाँ
इनके जालो मे फसकर कब तक खेलोगे खूनी होलियाॅ।।
खुदा के अनेको नामों पर
कब तक मंदिर मस्जिदो को तोड़ोगे।
सभी मज़हबो का जब एक मालिक
किस दिन रूह में महसूस कर पाओगे।।
मज़हब के ठेकेदारों ने खेली जो चालाकियाॅ
इंसान को इंसान से तोड़ने की सीखी बारीकियाॅ।
दुनिया का कोई भी मजहब सिखाता न लड़ाईयाॅ
इनकी म़ोकापरस्ती मे छुपी सफ़ेदपोशो से नजदीकियाॅ।।
बसा है एक ही खुदा हर दिल में
मज़हबो की कश्मकश से कब बाहर आओगे।
इबादतो का सलीका सबका है अलग अगर
कायनात के एक रहनुमा को कब पहचानोगे।।
बस इतना तो समझ लो हम-तुम-सब
मज़हब की पैंतरेबाजियों से खुदा है नाखुश।
सभी धर्मों के लोग आपस में प्यार से रहे अगर
मुहब्बत की इन्हीं सीड़ियों से खुदा तक पहुँच जाओगे।।
विशेष संदर्भ- यह कविता पूरे विश्व के परिप्रेक्ष्य मे सभी मज़हब के लोगों में आपसी भाई-चारा,प्यार मुहब्बत के साथ रहने हेतु लिखी गयी है। दुनिया के सभी मज़हब एक दूसरे के लिये प्रेम भाव की सीख देते हैं। इसी फ़लसफ़े को समझना सभी मानव का दायित्व है। हम सब चाहे किसी भी मज़हब के हो, एक ही ईश्वर, भगवान,खुदा,परमात्मा की संतान हैं। हम सभी को आपस में प्यार, मुहब्बत से रहना चाहिए।
अगर यह कविता एक भी इंसान की सोच बदलने मे कामयाब होती हैं। तो मैं समझूगा कि मेरा लिखने का प्रयास सफल हुआ।
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Great work
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति
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