भाता तुझ पर लज्ज़ा का श्रंगार,bhaata tujh per lazza ka shringar

 बाॅलों का गज़रा हो या माँथे की कुमकुम
कानों के झुमके हो या ऑखों का काजल
चाहे रख लो एक तरफ बाज़ारो के सब श्रंगार
पर इन सब पर भारी है तेरी लज्ज़ा का श्रंगार
वो तेरा पलकों को झुकाकर खुद ही शर्माना
बिखरती हँसी को तेरा दोनों हाथों से छुपाना
तुझे देखकर हया से तेरे रंगों का निखरना
जो शरमाकर हया से तेरे अँधरो का भीगना
चाहे रख लो एक तरफ दुल्हन के सोलह श्रंगार
पर तुझ पर भाता है बस लज्जा का ही श्रंगार

Reference to contexts- ज़िन्दगी की असल कहानियों  का वो नायक जो अपनी प्रेमिका पर लज्ज़ा की भंगिमाओं का क़ायल रहता है। उस नायक की लज्ज़ा के मायने को अभिव्यक्ति करती कविता। दोस्तों प्रेमिका, नायिका, स्त्री, का वास्तव में लज्ज़ा उसका नैसर्गिक आभूषण है। उसके बिना तो बाज़ारी आभूषण अधूरे ही हैं।

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